तुम कहां हो?
कहां नहीं हों ?
दोनों अनंत काल से चले
आ रहें शाश्वत प़शन है
इनके उत्तर भी अनंत काल से
शाश्वत हैं।
प़भु के बगैर होना तो दूर
कल्पना भी संभव नहीं
तुम सर्वत्र हो प़भु
कण कण में समाए हों
प़भु तुम यहां भी हों
वहां भी हों
आपके बिना कहते हैं कि
पत्ता भी नहीं हिल सकता
मंद मंद शीतल पवन नहीं वह सकतीं
कल कल करती नदियां नही बह सकतीं
हिलोरें मारकर विशाल सागर
अपनी सीमा में नहीं रहता
न ही सूर्य अपनी तपिश बिखेर कर हमें रोशनी देता
न ही चांद दीए जैसी रोशनी से हमें
शीतलता देता
पूछता हूं प़भु तुम कहां हो।
हे प्रभु जब से हम मानव कि अगली
पीढ़ी से लेकर
आखिर पीढ़ी तक यह प़शन
हमें तबाह किये हुए हैं
बर्बादी के द्वार पर खड़ा किए हुए हैं
हे प्रभु प़शन अटपटा सा है
पर शब्दों कि गूंज उत्तर के रूप में
होती है पर परतीत नहीं होती
हे प्रभु कभी कभी लगता है कि
आप हमारे अन्तर मन में हों
तब कभी कभी लगता है कि आप कण कण में हों
तब कभी कभी लगता है कि दीन हीन
लाचार अपाहिज मानव
पशु पंछी कि देखभाल करने में
हमें भूल गए हों
लेकिन यह सच है कि प़भु आप तो हो
पर आप कहां हो,??
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